राजस्थान की जनजातियों में भील, मीणा, गरासिया, डामोर, एवं सहरिया आदि आते हैं। राज्य के अजमेर, जयपुर, सवाई माधोपुर, उदयपुर, चित्तौड़गढ़, अलवर व कोटा में ७० प्रतिशत मीणा जाति के लोग रहते हैं, जो जनजाति में आते हैं। बांसवाड़ा, डूंगरपुर, सिरोही व पाली जिले में बसे हुए हैं। डूंगरपुर जिले के सीलमवाड़ा तथा बांसवाड़ा जिले की आन्नदपुरी पंचायत समितियों में डामोर जनजाति के लोग रहते हैं।
भील द्रविड़ के बीलु शब्द का रुपान्तरण है, जिसका अर्थ होता है धनुष। चूँकि इस जनजाति के लोग शिकार के लिए तथा जंगली जानवरों व अपने विरोधियों से रक्षा हेतु धनुष बाण का प्रयोग करते हैं, इसलिए इन्हें भील के नाम से सम्बोधित किया गया। ये लोग अपने को शंकर भगवान की संतान मानते हैं। इस जाति के उत्पत्ति की दास्तान इनके चारण, भाट तथा ढोली सुनाया करते हैं।
इस समुदाय के लोग क्रूर स्वभाव के थे, परन्तु इनमें स्वच्छ जीवन जीने की लालसा थी। अत: उन्होंने जनजाति के समूह से अपने को अलग कर लिया। ये लोग बहादुर तो होते ही हैं साथ ही विवेकी भी हैं। बदलती हुई परिस्थितियों में यह जनजाति अपने रहन – सहन के ढ़ंग में बहुत कम परिवर्तन कर पायी। अन्य जातियों के सम्पर्क के कारण धीरे – धीरे उनकी वंशावली में भी परिवर्तन आने लगे।
भीलों की सामाजिक व्यवस्था में वर वधू के चयन में लड़के व लड़की को पूर्ण स्वतन्त्रता है। पति की सबसे अमूल्य सम्पत्ति उसकी पत्नी होती है। भील जाति के सामाजिक जीवन में गमेती या मुखी सभी संस्कारों में प्रथम नागरिक की भूमिका निभाता है। जन्म से मृत्यु तक की समस्त रस्में गमेती सम्पन्न करवाता है और पारिवारिक विवादों को निपटाने में भी उसके परामर्श का सम्मान किया जाता है।
भील जाति के लोग अपने घर पर शराब बनाने की कला में निपुण होते हैं। मृत्यु के अतिरिक्त इनका कोई भी सामाजिक समारोह शराब के साथ ही सम्पन्न होता है। इनमें विवाह की अनेक रस्में हैं। जैसे – हाटा-पाटा (अदला बदली)। अपने इच्छा से अपने पति को छोड़ देना इनमें प्रचलित है, विधवा विवाह भी।
महाकवि श्यामलदास ने लिखा है कि उदयपुर जिले के मेवल क्षेत्र में मीणों की उत्पत्ति हुई थी और ये अपनी बहादुरी के बल पर भीलवाड़ा जिले के जहाजपुर एवं माण्डलगढ़ क्षेत्र में बस गए। येलोग अपनी उत्पत्ति पृथ्वीराज चौहान से मानते हैं। ये अपने एक पूर्वज-माला जुझार का बहुत अधिक सम्मान करते हैं। मीणा सम्पूर्ण राजस्थान में फैले हुए हैं। इतिहास के अनुसार आमेर पर सुसावत मीणों का शासन था। यही बात बून्दी तथा देवरिया (प्रतापगढ़) रियासत के शासकों के बारे में कहा जा सकता है।
अलवर जिले के गजेटियर के अनुसार जयपुर के एक बहुत बड़े भू-भाग में मीणों का शासन रहा है। मीणा ३२ गोत्रों और दो भागों में विभक्त हुआ करता था –
१) जमींदार या कृषक मीणा
२) चौकीदार अथवा शासक मीणा
कृषक मीणा अच्छे कृषक समूह का नेतृत्व करता था। जबकि चौकीदार उच्च वर्ग के समूह से सम्बन्ध रखते थे। इसलिए ये कृषक मीणा समूह में जन्म लेने वाली लड़की से विवाह तो कर लेते हैं, परन्तु अपनी लड़की का विवाह कृषक मीणा समूह के लड़के से कभी नहीं करते थे। इतिहास इस बात का गवाह है कि चौकीदार वर्गीय मीणाओं ने कृषि का व्यवसाय शुरु किया, तब वे अपनी कुलीनता एवं हैसियत खो बैठे। इस प्रकार वे कृषक वर्गीय समूह मीणा समूह से जा मिले।
चौकीदार मीणों के वीरता के कारनामें दक्षिण भारत तक प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि ये लोग किसी एक बहादुर के नेतृत्व में सुदूर दक्षिण में हैदराबाद तक जाते थे और वहाँ डकैती जाते थे और अप्रत्यक्ष रुप से ठगी करता थे। ठगी अथवा लूट के माल से ये अपने आस – पास के गाँवों के लोगों की सहायता करते थे। उसी वजह से लुटेरे होते हुए भी ये अपने समूह में काफी लोकप्रिय थे।
बहुसंख्यक वर्ग अपने आस – पास के इलाकों में ही चोरी और डकैती का काम किया करते थे। लोग आतंकित होकर इनके समूह को अपना गाँव सौंप देते थे और इन्हें बहुत बड़ी रकम अनौपचारिक रुप से कर के रुप में दे देते थे। उनके दुस्साहसपूर्ण कार्यों से महाराजा विजयसिंह बहुत तंग हो गये और इनपर प्रतिबन्ध लागू कर दिया। अच्छे आचरण वाले लोग उन चौकीदार मीणीं के साथ विवाह एवं हुक्के पानी के संबंध से परहेज रखने लगे।
उत्तर पूर्वी राजस्थान के मीणें स्वयं को दक्षिणी राजस्थान के मीणों से अलग मानते हैं। यह भावना खासकर प्रतापगढ़ का मीणों में देखने को मिलती है। वास्तविक स्थिति यह है कि उत्तर – पूर्वी राजस्थान के मीणा में भी देखने को मिलती है । रहन – सहन तथा आचार – संहिता तथा आचार – विचार की की दृष्टि से यह समाज की मुख्य धारा से जुड़ गया। विवाह सम्बन्ध एवं सामाजिक रिश्तों का इनका अपना अलग दायरा है
गरासिया जनजाति के लोग मुख्य रुप से उदयपुर जिले के आमेर क्षेत्र, खेरवाड़ा पंचायत समिती, कोटड़ा, फलासिया, गोगुन्दा एवं सिरोही जिले के पिण्डवारा तथा आबू रोड़ तथा पाली जिले के बाली क्षेत्र में बसे हुए हैं। ये गोगुन्दा (देवला) को अपनी उत्पत्ति मानते हैं, परन्तु आर्थिक कारणों से ये लोग डूंगरपुर, बांसवाड़ा, पाली तथा कोटा जिलों में जाकर बस गये हैं। मीणों के समान गरासिया भी स्वयं को राजपूत वंश का मानते हैं। लोक कथाओं के अनुसार गरासिया जनजाति के लोग यह मानते हैं कि ये पूर्व में अयोद्धया के निवासी थे और भगवान रामचन्द्र के वंशज थे।
उनके पूर्वज वहाँ से बैराठ (जयपुर) चले गये और यहाँ पर शासन किया, जहाँ उनके गरासिया राजा कोठोर को किसी मुगल बादशाह के हाथों मृत्यु हो गयी। ये लोग मानते हैं कि उनकी गौत्रें बापा रावल की सन्तानों से उत्पन्न हुई थीं। इनमें डामोर, चौहान, वादिया, राईदरा एवं हीरावत आदि गोत्र होते हैं। ये गोत्र भील तथा मीणा जाति में भी पाये जाते हैं।
रहन – सहन तथा वेश – भूषा की दृष्टि से गरासिया जनजाति की अपनी एक अलग पहचान है। गरासिया स्रियाँ रंगीन घाघरा पहनती हैं ।वे अपने तन – बदन को पूर्ण रुप से ढंक देती हैं तथा चाँदी, पीतल व अल्युमिनियम के असंख्य गहने पहनती हैं। ये सभी जनजातिय विवाह को स्वीकार करते हैं। वर पक्ष को दापा देना पड़ता है। पहले दापे की राशि १६ रुपये मात्र थी, जो अब बढ़कर ढ़ाई – तीन हजार रुपया तक हो गया है। बहु विवाह का भी प्रचलन हैं। उसी प्रकार गमेती अनमेल विवाह अपने उम्र से बहुत कम उम्र की लड़की से विवाह करते हैं।
गरासिया जनजाति के लोग गणगौर का त्योहार मनाते हैं। यह प्रथा दक्षिण राजस्थान की अन्य जातियों में भी प्रचलित नहीं है। मेवाड़ में होनेवाले गणगौर की पूजा से ये काफी प्रभावित हैं। ‘गवरी नृत्य’ गौरी पूजा से भी इस बात की पुष्टि होती है कि ये अम्बा देवी के उपासक हैं। गरासिया घूमर नृत्य के भी शौकीन हुआ करते हैं। इनेक आचार – विचार तथा खान – पान आदि अन्य जातियों सो बहुत मिलते – जुलते हैं। ये लोग भील, मीणा, डामोर को अपने से काफी नीचा मानते हैं, अत: उनसे वैवाहिक सम्बन्ध नहीं रखते हैं।
यह जनजाति डूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा पंचायत समिति के दक्षिण – पश्चिमी केन्द्र (गुदावाड़ा – डूंका आदि गांवों में) केन्द्रित है। बांसवाड़ा एवं उदयपुर जिले में भी इस जनजाति के लोग रहते हैं। परमार गोत्र की डामोर जनजाति के लोगों का यह मानना है कि उनकी उत्पत्ति राजपूत राजा के वंश से हुई जबकि सोसौदिया गोत्र के डामोर अपने को चित्तौड़ राज्य के सिसौदिया वंश से मानते हैं।
राठौर, चौहान, सोलंकी, मालीवाड़ तथा बारिया आदि गोत्र को डामोर अपने को उच्च वर्ग का मानते हैं। गुजरात के चौहान अवं परमार वंश का सरदार पारिवारिक कलह से तंग आकर राजस्थान में बस गये और धीरे – धीरे उन्होंने स्थानीय डामोर से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए। ये लोग कालांतर में निम्न वर्ग के डामोर कहलाए। गुजरात में भी भारी संख्या में अनेक गोत्रों के डामोर रहते हैं।
एक किंवदन्ती के अनुसार, डोम जाति के घर का पानी पी लेने वाले राजपूत सरदार के वंशज मूलतया डामोर जनजाति में गिने गये।
भीलों की अपेक्षा डामोर अपने तन की शुद्धता का विशेष महत्व रखते हैं। इनके अन्य संस्कार व रीति रिवाज, सामाजिक व्यवस्था मीणा व भील जनजाति से काफी मिलते जुलते हैं। इनके भाषा व रहन सहन में गुजरात का काफी प्रभाव देखने को मिलता है। ये सब खूबियां मिला – जुला कर डामोर को एक अलग पहचान देने में सफल रही है।
सहरिया जनजाति राजस्थान के लोग पिछड़ी हुई हैं। ये लोग मुख्यत: शाहदाब, किशनगढ़ (कोटा) पंचायत समितियों में निवास करते हैं। सहरिया शब्द सहारा से बना है जिसका अर्थ रेगिस्तान होता है। इनका जन्म सहारा के रगिस्तान में हुआ माना जाता है। मुगल आक्रमणों से त्रस्त होकर ये लोग भाग गए और झूम खेती करने लगे।
सहरिया के पच्चास गोत्र हैं। इनमें चौहान और डोडिया गोत्र राजपूत गोत्र से मिलते हैं। ये समूह स्वयं को राजपूतों की वो भ्रष्ट संतान हैं जो कभी गाय को मार कर उसका मांस खा गये।
सहारिया जाति के लोग स्थायी वैवाहिक जीवन को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। यद्यपि नाता प्रथा विवाहिता एवं कुंवारी दोनों मानते हैं। अतीत में नाता प्रथा के लिए स्रियों को शारीरिक दण्ड दिया जाता था, आजकल आर्थिक व कोतवाल के मामलों के द्वारा सुलटा लिया जाता है।
अन्य समाज में जो स्थान मुखिया का होता है, पटेल का होता है, वही स्थान सहरिया समाज में कोतवाल का होता है। इस जाति के लोग हिन्दू त्यौहारों और देवी देवताओं से जुड़े धार्मिक उत्सव मनोते हैं, ये लोग तेजाजी को आराध्य के रुप में विशेष तौर पर मानते हैं।
तेजाजी की स्मृति में भंवरगढ़में एक मेला लगता है जिसे इस जनजाति के लोग बड़े ही उत्साह व श्रद्धा से देखते हैं। ये लोग अपनी परम्परा से उठकर स्रियों के साथ मिल – जुलकर नाचते गाते हैं राई नृत्य का आयोजन करते हैं, होली के बाद के दिनों में ये सम्पन्न होता है।
इनके सघन गाँव देखने को मिलते हैं। ये छितरे छतरीनुमा घरों में निवास करते हैं। इनका एक सामूहिक घर भी होता है जहां वे पंचायत आदि का भी आयोजन करते हैं। इसे वे ‘बंगला’ कहते हैं। एक ही गाँव के लोगों के घरों के समूह को इनकी भाषा में ‘थोक’ कहा जाता है। इसे ही अन्य जाति समूह फला भी कहते हैं।
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