जयपुर के आसपास होने वाले उत्खन्न से पता चलता है कि इस क्षेत्र में चिन्हाकिंत, योधेय, गुप्त सेलेनियन, गधिया, प्रतिहार, चौहान आदि सिक्के पता चलते थे। जब से कछवाहों का शासन आमेर में स्थापित हुआ तो उनके प्रारम्भिक सिक्कों का होना नहीं दिखाई पड़ता। अलबत्ता मुसलमानों की स्थापना से यहां सुल्तानों के सिक्कों का प्रचलन हुआ।
मुगलों के सम्बन्ध से मुगली सिक्के भी यहां चलते थे, मुगल शासक अकबर के काल से निकट होने से संभवत: कछवाहों को अपने यहां टकसाल स्थापित करने की आज्ञा अन्य राजस्थानी राज्यों की तुलना में पहले मिली हो। इस राज्य की टकसालों आमेर, जयपुर, माधोपुर, रुपास, सूरजगढ़ और चरन (खेतड़ी) में होना प्रतीत होता है।
1802-3 ई. में सिक्के से होने वाली राज्य की आमदनी 60,000 रु. मानी जाती है, यहां कि मुद्रा को झाड़शाही कहते हैं क्योंकि उसके ऊपर छ: टहनियों के झाड़ का चिन्ह बना रहता है।
वैसे तो यहां स्वर्ण मुद्रा का बनना अधिक दिखाई नहीं देता परंतु रामसिंह, माधोसिंह तथा पिछले वर्तमान कालीन शासकों के स्वर्ण के सिक्के देखे गए हैं। रामसिंह की मुद्रा की एक ओर जर्ब संवाई जयपु सन् 1868 बाहरी मल्लिका मौजमा सल्तनत इंगलिशतान विक्टोरिया और दूसरी ओर जुसूस मैमनथ मानुस महावराज सवाई रामसिंह जी अंकित था। इस पर भी छ: टहनीयों का झाड़ रहता था। इसका तोल 1679 ग्रेन होता था। माधोसिंह की स्वर्ण मुद्रा भी इसी प्रकार की रहती थी, सिवाय इसके की उस पर रामसिंह की बजाए माधोसिह का नाम रहता था।
राज्य में चांदी की मुद्रा में रुपया, अठन्नी, चवन्नी व दुपन्नी होती थी। ईश्वरी सिंह की मुद्रा 1743 ई. पर एक और सिक्का “”मुबारक बादशाह गाजी मुहम्मद शाह 1156” व दूसरी और “”जर्ब सवाई जयपुर सन् 29 जुसूस मैननत मानसू” अंकित रहता था। इसका तोल 175 ग्रेन होता था। इसी शैली के अहमदशाह के नाम के सिक्के भी होते थे जो जयपुर में बने थे।
इसी प्रकार माधोशाही रुपया भी होता था जिसमें इसी शैली से शाह आलम बहादुर का नाम खुदा होता था। जगत सिंह के लिए टॉड का कहना है कि उसने अपनी प्रेयसी रसकपूर के नाम के सिक्के भी बनवाये थे। रामसिंह ने इसी तरह के मुहम्मदशाह के नाम के सिस्कों का प्रचलन किया। जिसमें झाड़ व बिन्दु का गोलवृत्त होता था। माधोसिंह के रुपये को “हाली’ सिक्का कहते थे, जिसके 1 रुपये के दाम में 101.939 कल्दार होते थे।
ताम्बे के सिक्के का प्रचलन 1760 ई. से होना माना जाता है इस पुराने झाड़शाही पैसा कहते थे। इसके एक ओर “”सिक्का मुबारक बादशाह गाजीशाह आलम” व दूसरी ओर “”जरब सवाई जयपुर” अंकित रहता था। इस पर लगाया गया चिन्ह झाड़ का होता था। तोल में यह सिक्का 262 ग्रेन का होता था। इसके एक ओर “”सिक्का मुबारक बादशाह मुहम्मदशाह बहादुर” व दूसरी ओर “”जर्ब सन् 19 सवाई जयपुर” अंकित रहता था। इसमें झाड़ के साथ एक मछली भी बनी रहती थी। 1874 से तांबे सिक्के का वजन घटाकर 96 ग्रेन कर दिया गया।
खेतड़ी की टकसाल में चांदी व तांबे के सिक्के बनते थे। यहां की टकसाल को 1869 में बन्द कर दिया गया। स्थानीय इस मुद्रा प शाहआलम नाम बना रहता था, जिसका प्रारम्भ 1759 और 1789 के बीच किया गया।
जयपुर व दिल्ली में अकबर के समय से घनिष्ठ सम्बन्ध रहे थे। जयपुर की कला पर मुगल शैली का बहुत प्रभाव पड़ा फिर भी कई रुपों में समान होते हुए भी जयपुर शैली अपनी मौलिकता रखती है। औरंगजेब के समय में मुगल कला पतन की ओर अग्रसर हो गई, ऐसी स्थिति में कलाकार मुगल दरबार को छोड़कर जयपुर आदि राजस्थान के समृद्ध केन्द्रों में आ गए और जयपुर के महाराजाओं ने उन्हें संरक्षण तथा प्रोत्साहन दिया। राजा जयसिंह, अजितसिंह, विजयसिंह, मानसिंह, सवाई जयसिंह व ईश्वर सिंह जैसे कला प्रेमी शासकों के समय में ढूंढार प्रदेश में चित्रकला का असाधारण विकास हुआ था।
कुंवर संग्राम सिंह के ढूंढांर प्रदेश की राजधानी चित्रकला के लिए विशेष देन नामक लेख से भी इस बात की पुष्टि होती है। जयपुर (ढूंढार) के चित्रो में न्यूरतस, बैराठ तथा मोजमाबाद के फिटस कोज सबसे अधिक प्रसिद्ध है। राजा मानसिंह के काल के भित्ति चित्रों में बारामासा, राग माला, भाग्वत पुराण के दृश्य चित्रित किए गए थे। निजी राजा जयसिंह के शासनकाल में बने चित्रों पर मुगल प्रभाव स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होता है। ढूंढार में पोट्रेट पेंटिंग का सर्वाधिक विकास हुआ है।
अजितसिंह के समय में अन्त:पुर की रंगरेलियां, स्रियों के स्नान व होली के खेलों ने राग रंग को वह माधुर्य प्रदान किया जो अचेतन में भी उत्साह भरता है। विजयसिंह और मानसिंह के समय श्रृंगार व भक्तिरस के चित्रों की प्रधानता रही। इस समय स्रियों के गठीले अंगों को मोहक बनाने के लिए चित्रों में लाल व पीले रंगों का प्रयोग किया जाता था। आमेर में बने लघु चित्रों में भी जो किसी न किसी घाना की स्मृति में बनाए जाते थे चित्रकला का एक लोकप्रिय अंग थे।
सवाई जयसिंह (1700-43) के काल में चित्रकला के क्षेत्र में असाधारण विकास हुआ जयपुर के महलों में बने हुए भित्ति चित्र इसकी पुष्टि करते हैं। सवाई जयसिंह के समय में कई सचित्र ग्रंथों की रचना हुई जिनमें “बिहारी सतसई’ का चित्रण प्रमुख है। महाराणा ईश्वरी सिंह के समय में शिकार के चित्र तथा राजकीय सवारियों के चित्र प्रधान रुप से चित्रित किए जाते थे। ये चित्र काल्पनिक न होकर चित्रकारों द्वारा अपनी आँखों देखी घटनाओं के आधार पर बनाए गए हैं। महाराणा माधोसिंह ने भी चित्रकला को संरक्षण किया।
सिसोदिया रानी का उद्यान तथा भित्ति चित्रों के लिए प्रसिद्ध प्रासाद्ध माधोसिह प्रथम के शासनकाल में बनाया गया था। जयपुर शैली में पुरुष व स्री के आकर्षक चित्र थे। कुम्हार, नाई, धोबी, सुनार, दुकानदार, माली, किसान, ग्वाला व सैनिक आदि के जीवन की घटनाओं पर चित्र चित्रित थे। श्री घासी, सालिगराम, रघुनाथ व रामविवेक आदि यहां के प्रसिद्ध कलाकार थे, जिन्हें आमेर के कछवाहा राजाओं द्वारा प्रोत्साहन दिया जाता था।
इस प्रकार जयपुर शैली में स्री पुरुष सामाजिक व्यक्तिगत धार्मिक एवं रस श्रृंगार आदि विषयों पर लाल व पीले रंगों से युक्त चित्र बनते थे। जिन पर मुगल प्रभाव होते हुए भी मौलिकता थी, महाराजा प्रताप सिंह (1778-1803) के समय में जयपुर शैली का अत्यधिक विकास हुआ वह स्वयं एक कुशल कवि, संगीतज्ञ तथा कला पारखी था। उसके समय में बने चित्रों में कृष्ण लीला, गोवर्धन धारण, गोवर्धन पूजा आदि विशेष रुप से उल्लखनीय है।
प्रताप सिंह ने एक चित्रकला केन्द्र की स्थापना की, जिसमें 50 से अधिक चित्रकार थे। यहां पर रामायण, भाग्वत, पुराण तथा कृष्ण लीला आदि ग्रंथों को लघु चित्रों से अलंकृत किया गया। 19वीं शताब्दी के मध्य में जयपुर शैली की चित्र परम्परा अवनत होती दिखाई देती है। धीरे-धीरे जयपुर की चित्रकला पर यूरोपियन शैली का प्रभाव भी पड़ने लगा था।
उनियारा जयपुर राज्य की एक जागीर थी अत: यहां के चित्रों पर जयपुर का प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखाई देता है, परन्तु उनियारा के चित्रों में आंखों की बनावट जयपुर कलम से सर्वथा भिन्न है।
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